आने वाली पीढ़ी को सुरक्षित रखने के लिए कोविड-19 के कारण जलवायु संकट केे प्रभावों की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए, पीडब्ल्यूसी- सेव द चिल्ड्रन अध्ययन में कहा गया

Editor-Rashmi Sharma

नई दिल्ली, 9 अक्टूबर, 2020ः मौसम की चरम परिस्थितियों जैसे बाढ़, साइक्लोन, आपदा संभावी क्षेत्रों में अपरदन आदि के चलते इन भोगौलिक क्षेत्रों में रहने वाले बच्चे सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से संवेदनशील हो रहे हैं, और उनके मौलिक अधिकार खतरे में हैं- पीडब्ल्यू इंडिया- सेव द चिल्ड्रन इंडिया अध्ययन ष्च्तवजमबज ं ळमदमतंजपवदरू ब्सपउंजम ेमबनतपजल वित प्दकपंष्े बीपसकतमदष् में ऐसा कहा गया है। कोविड-19 महामारी के चलते जोखिम और अधिक बढ़ गया है।
यह रिपोर्ट तीन राज्यों उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश और पश्चिमी बंगाल में साल भर किए गए अध्ययन पर आधारित है, जिसमें जलवायु परिवर्तन के कारण बच्चों पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने, जोखिम को पहचानने, इसके उन्मूूलन की रणनीतियों पर काम करने और जलवायु में सकारात्मक बदलाव हेतु उचित योजना बनाने के लिए तीन विभिन्न खतरा संभावी क्षेत्रों- बाढ़, सूखा एवं साइक्लोन पर अध्ययन किया गया। बच्चों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के बारे में जागरुकता बढ़ने के लिए सोशल मीडिया पर एक अभियान- रुरैड एलर्ट आॅन क्लाइमेन्ट कैंपेन भी लाॅन्च किया गया।
अध्ययन के कुछ अन्य मुख्य परिणामों में शामिल हैंः
1. ज़्यादातर ज़िलों में चार में से तीन परिवारों ने बताया कि बारिश में कमी आई है।
2. कम से कम 60 फीसदी परिवारों ने बताया कि जलवायु संकट के कारण उनकी आर्थिक स्थिति पर प्रभाव पड़ा है।
3. 90 फीसदी परिवारों ने बताया कि जलवायु संकट का पेयजल पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।
4. 75 फीसदी परिवारों ने बताया कि मौसमी घटनाओं के चलते उनके घर को नुकसान पहुंचा है।
5. 14 फीसदी उत्तरदाताओं ने बताया कि वे कम से कम एक ऐसे परिवार को जानते हैं जो जलवायु आपदा के चलते किसी दूसरे स्थान पर चला गया। कुछ क्षेत्रों में 20 फीसदी उत्तरदाताओं ने बताया कि वे किसी अन्य स्थान पर चले जाना चाहते हैं।
6. क्षेत्र के आधार पर, 58 फीसदी तक उत्तरदाताओं ने बताया कि उनके बच्चों को उंचे तापमान के चलते स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे डीहाइड्रेशन, त्वचा रोगों और एलर्जी आदि का सामना करना पड़ रहा है।
7. कई ज़िलों में 50 फीसदी से अधिक उत्तरदाताओं ने बताया कि तेज़ गर्मी के चलते बच्चे बाहर जाकर नहीं खेल पाते हैं।
रिपेर्ट में इन समस्याओं के उन्मूलन के लिए कई सुझाव दिए गए हैं जैसे बाल कल्याण योजनाएं, स्वास्थ्य सेवाओं की डिलीवरी को सक्षम बनाना, बुनियादी सुविधाओं को जलवायु के लिए अनुकूल बनाना, जलवायु को ध्यान में रखते हुए स्मार्ट कृषि को अपनाना, स्थायी जल प्रबंधन और किसी भी आपदा के दौरान बाल सुरक्षा को सुनिश्चित करना। इन रणनीतियों को मुख्य धारा में लाकर, मौजूदा नीतिगत बदलावों के द्वारा जलवायु परिवर्तन के कारण बच्चों पर पड़ने वाले प्रभावों को कम किया जा सकता है।
जयवीर सिंह, वाईस चेयरमैन, पीडब्ल्यू इंडिया फाउन्डेशन ने कहा, ‘‘इस अनुसंधान के माध्यम से हमने संवेदनशील बच्चों के सामने आने वाली चुनौतियों पर आवाज़ उठाने की कोशिश की है। हम इन चुनौतियों के समाधान के लिए ऐसी व्यवहारिक रणनीतियां उपलब्ध कराना चाहते हैं जो जटिल जलवायु परिवर्तन के कारण उत्पन्न होने वाली आपदाओं के प्रभाव को कम कर सकें। हमें उम्मीद है कि यह रिपोर्ट प्रमाणों के आधार पर नीतिगत बदलावों और निर्णय निर्धरण को सशक्त बनाएगी और बच्चों के जीवन पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में योगदान देगी।’’
सुदर्शन सुची, सीईओ, सेव द चिल्ड्रन ने कहा, ‘‘जलवायु एवं पर्यावरण का संकट बाल अधिकारों के लिए संकट है, जो आज ओर आने वाले कल के लिए बच्चों के जीवन, लर्निंग एवं सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा है, खासतौर पर सीमांत वर्गों के वंचित बच्चे इस दृष्टि से सबसे ज़्यादा जोखिम पर हैं। रिपोर्ट में सीमांत एवं संवेदनशील बच्चों के लिए आपदा के प्रभावों पर रोशनी डाली गई है।’’
अध्ययन में बताया गया है कि संवेदनशील परिवारों और उनके बच्चों पर जलवायु संकट का सबसे ज़्यादा असर पड़ता है, खराब रणनीतियों के चलते हालात और बदतर हो जाते हैं। परिवारों ने बताया कि तेज़ गर्मी और पेयजल की कमी के कारण उनके बच्चों को डीहाइड्रेशन, त्वचा रोगों एवं एलर्जी जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। कई बार परिवारों को मौसमी आपदा के चलते अपना घर छोड़कर कहीं ओर जाना पड़ता है, जिसके चलते बच्चे स्कूल नहीं जा पाते और उनकी पढ़ाई में रूकावट आते है। परिवारों ने यह भी बताया कि आपदा के बाद चिकित्सा सेवाओं की भी कमी हो जाती है, क्योंकि या तो अस्पतालों को नुकसान पहुंचता है या वहां तक जाना संभव नहीं होता।
जलवायु संकट एक वास्तविकता है रिपोर्ट में इस तरह की आपदा की आवृति एवं तीव्रता पर रोशनी डाली गई है- इसके कारण आजीविका, स्वास्थ्य, पोषण एवं बाल अधिकारों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में बताया गया है। रिपोर्ट में उन परिवारों की सहायता के लिए सुझाव भी दिए गए हैं जिन्हें जलवायु परिवर्तन के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। यह रिपोर्ट अपने आप में बाल-उन्मुख रणनीतियों के लिए आह्ववान है जो भावी पीढ़ियों के लिए मददगार साबित हो सकती है।
पिछलेे कुछ सालों में भारत के कई राज्यों में बच्चों के लिए बढ़ती संवेदनशीलता के मद्देनज़र, रिपोर्ट के माध्यम से खासतौर पर ग्रामीण भारत के बच्चों पर जलवायु संकट के प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष प्रभावोें को समझने का प्रयास किया गया है।
तीन राज्यों (मध्यप्रदेश, पश्चिमी बंगाल और उत्तराखण्ड) के विभिन्न भोगोलिक क्षेत्रों में संवेदनशीलता, जोखिम एवं प्रभाव मूल्यांकन का विस्तृत अध्ययन किया गया, ताकि बच्चों पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन किया जा सके, सामुदायिक स्तर पर इन प्रभावों को कम करने के लिए उचित रणनीतियां बनाई जा सकें और विभिन्न सीएसओ द्वारा उन्मूलन के उपायों को प्रभावी बनाया जा सके। भौगोलिक-जलवायु ज़ोनों, एक्सपोज़र एवं जलवायु संकट की सीमा के आधार पर इन राज्यों का चयन किया गया। आजीविका, स्वास्थ्य, हाइजीन, पोषण, शिक्षा एवं बच्चों पर जलवायु परिवतर्न के प्रभावों को विश्लेषण के लिए गुणात्तमक एवं मात्रात्मक तरीकों का उपयोग करते हुए विस्तृत सर्वेक्षण किया गया।
बच्चे जलवायु परिवर्तन का शिकार बन जाते हें क्योंकि इसका असर उनके मौलिक अधिकारों जैसे जीवन, विकास, सुरक्षा एवं भागीदारी पर पड़ता है। चरम मौसम के दौरान उन्हें चोट पहुंचने की संभावना सबसे ज़्यादा होती है क्योंकि वे खतरे को भांपने में सक्षम नहीं होते और अक्सर यह नहीं जानते कि ऐसे समय में अपने आपको कैसे बचाएं। जलवायु आपदा के बाद भी उन्हें कई कारणों से भावनात्मक तनाव का सामना करना पड़ता है, जैसे नींद में परेशानी, जीवन और सम्पत्ति को नुकसान एवं मनोवैज्ञानिक मुद्दे।
इस तरह की आपदा के परिणामस्वरूप पानी से फैलने वाले एवं अन्य संक्रामक रोगों की संभावना भी बढ़ जाती है, जिसके चलते बच्चों की शिक्षा और अकादमिक परफोर्मेन्स पर बुरा असर पड़ता है। कुछ मामलों में कृषि उत्पादकता में गिरावट आ जाने के कारण परिवार कर्ज के बोझ तले दब जाता है और बच्चों की पढ़ाई बीच में ही छूट जाती है।
भूजल स्तर में कमी से पेयजल की उपलब्धता पर असर पड़ता है और बच्चे डीहाइड्रेशन का शिकार हेा सकते हैं। ऐसा भी पाया गया है कि आपदा के बाद क्षेत्र में अस्पताल की सुलभता न होने के कारण बच्चों को उचित उपचार नहीं मिल पाता। इसके अलावा उन्हें स्कूल जाने में भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। कुछ गरीब परिवारों में बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता नहीं दी जाती क्योंकि परिवार को आजीविका की तलाश में किसी अन्य गांव का रूख करना पड़ता है।
समुदायों को इन चुनौतियों से निपटने में सक्षम बनाने के लिए रिपोर्ट में अधिकारियों से आग्रह किया गया है कि बाल सुरक्षा एवं कल्याण योजनाओं को सशक्त बनाएं, फ्रंटलाईन कर्मचारियों जैसे स्वास्थ्यसेवा पेशेवरों और अध्यापकों को प्रशिक्षत करें ताकि तनावग्रस्त परिवारों को पहचान कर उन तक मदद पहुंचाई जा सके। साथ ही सरकार से ऐसे ऐप्स पेश करने का आग्रह भी किया गया है, जिसके माध्यम से आपदा संभावी क्षेत्रों के स्वास्थ्य के बारे में जानकारी पाई जा सके और अर्द्ध शिक्षित लोग भी इनका उपयोग कर सकें।
संकट के दौरान और बाद में, बाल-अनुकूल स्थान बनाए जाएं जहां बच्चे ठीक हो सकें, अपने अनुभवों को साझा कर सकें, वे एक दूसरे के साथ जुड़ सकें और एक दूसरे की मदद कर सकें। बुनियादी सुविधाओं में भी ऐसे बदलाव लाए जाने चाहिए ताकि ये जलवायु प्रभावों को झेलने में सक्षम हों। इसके अलावा बारिश केे कारण भूस्खलन एवं अन्य मौसमी संभावनाओं के बारे में पहले से चेतावनी दी जाए। विशेष प्रोग्रामों के माध्यम से वैकल्पिक आजीविका के साधन उपलब्ध कराए जाएं ताकि आपदा ग्रस्त परिवारों को आजीविका की तलाश में किसी दूसरे स्थान का रूख न करना पड़े।
जलवायु परिवर्तन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दों में से एक है, जो न केवल बच्चों के जीवन को प्रभावित करता है बल्कि संयुक्त राष्ट्र द्वारा स्थापित सतत विकास के लक्ष्यों को समयपर हासिल करने में भी रूकावट का कारण बन सकता है।

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