गुरूग्राम के फोर्टिस मैमोरियल रीसर्च इंस्टीट्यूट में एक दशक तक चले अध्ययन ने स्टैम सैल ट्रांसप्लांट के ज़रिए सिकल सैल रोग से पीड़ित बच्चों के इलाज में बड़ी सफलता पर डाली रोशनी

गुरूग्राम, भारत, 10 नवम्बर, 2025: भारतीय हेल्थकेयर में ऐतिहासिक प्रगति दर्ज करते हुए एफएमआरआई, गुरूग्राम के डॉक्टरों ने बोन मैरो (स्टैम सैल) ट्रांसप्लांट के ज़रिए सिकल सैल रोग से पीड़ित बच्चों के इलाज में ज़बरदस्त सफलता हासिल की है। यह विकास भारत को आधुनिक पीडिएट्रिक ट्रांसप्लांट के परिणामों में अग्रणी देशों में शामिल करता है।

एक दशक तक चले इस अध्ययन का विवरण इंटरनेशनल जर्नल हीमोग्लोबिन में प्रकाशित किया गया। इस अध्ययन के तहत 2015 से 2024 के बीच 100 पीडिएट्रिक मामलों का विश्लेषण किया गया। अध्ययन के परिणामों के अनुसार मरीज़ों के जीवित रहने की दर तकरीबन 87 फीसदी रही, मैच्ड सिबलिंग डोनर ट्रांसप्लांट में 96 फीसदी सफलता देखी गई, वहीं हाफ-मैच्ड (हैप्लोआइडेंटिकल) फैमिली डोनर ट्रांसप्लांट में 78 फीसदी सफलता दर्ज की गई। यह विश्वस्तर पर दर्ज किए गए सर्वश्रेष्ठ परिणाम हैं, जो विकासशील देशों में सिकल सैल रोग के प्रबन्धन में उल्लेखनीय प्रगति को इंगित करते हैं।

सिकल सैल रोग रक्त का एक आनुवंशिक विकार है, जो दुनिया भर में लाखों बच्चों को प्रभावित करता है। खासतौर पर भारत एवं उप-सहारा अफ्रीका में इस रोग के मामले बड़ी संख्या में देखे जाते हैं, वास्तव में दुनिया के आधे मामले इन्हीं क्षेत्रों में होते हें। इसके परिणामस्वरूप मरीज़ में गंभीर एनिमिया, बार-बार तेज़ दर्द, स्ट्रोक, अंगों को नुकसान पहुंचना और जीवन की प्रत्याशा कम होना जैसे लक्षण हो सकते हैं। अब तक इलाज के विकल्प सिर्फ दवाओं के द्वारा लक्षणों पर नियन्त्रण रखने और मरीज़ को खून चढ़ाने तक ही सीमित रहे हैं। लेकिन स्टैम सैल ट्रांसप्लांट इलाज का आधुनिक तरीका है जिसे बोन मैरो ट्रांसप्लांट भी कहते हैं। इसमें मरीज़ के खराब बोन मैरो को कम्पेटिबल डोनर के स्वस्थ स्टैम सैल्स से बदल दिया जाता है, इस तरह मरीज़ का इलाज स्थायी रूप से हो जाता है।

डॉ स्वाति भयाना, अध्ययन की मुख्य लेखिका और पीडिएट्रिक हीमेटोलोजी, ओंकोलोजी एंड बोन मैरो ट्रांसप्लांट कन्सलटेन्ट, फोर्टिस गुरूग्राम ने कहा, ‘‘यह उन परिवारों के लिए उम्मीद की किरण है जो सिकल सैल रोग के साथ जीने को मजबूर हैं। हमारे रीसर्च में साफ हो गया है कि भारत जैसे विकासशील देशों एवं अफ्रीका में अगर इन बच्चों को समय पर आधुनिक इलाज मिले तो इनके जीवित रहने की दर दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सेंटरों की तुलना में भी अधिक हो जाती है। इन परिणामों से साफ है कि सीमित संसाधनों वाले क्षेत्रों में भी मरीज़ों का इलाज संभव है।’’

अध्ययन में यह भी पाया गया कि मरीज़ को लम्बे समय तक जीवित रखने के लिए जल्द से जल्द निदान और समय पर ट्रांसप्लान्ट करना ज़रूरी है। अगर गंभीर जटिलताएं जैसे स्ट्रोक या अंगों को नुकसान पहुंचने से पहले ही इलाज हो जाए तो परिणाम कई गुना बेहतर हो सकते हैं। फोर्टिस की टीम ने ट्रांसप्लान्ट के आधुनिक प्रोटोकॉल्स के ज़रिए ये परिणाम हासिल किए हैं, जिनमें साइड-इफेक्ट्स और ग्राफ्ट-वर्सेस-होस्ट डिज़ीज़ की संभावना कम हो जाती है। गौरतलब है कि ट्रांसप्लान्ट के बाद ग्राफ्ट-वर्सेस-होस्ट डिज़ीज सबसे आम समस्या है।

डॉ विकास दुआ, प्रिंसिपल कन्सलटेन्ट एवं हैड, पीडिएट्रिक हीमेटोलोजी, ओंकोलोजी, एवं बोन मैरो ट्रांसप्लान्ट, फोर्टिस गुरूग्राम ने कहा, ‘‘इनमें से ज़्यादातर बच्चे दर्द में जी रहे थे, उन्हें बार-बार अस्पताल में भर्ती होना पड़ता था, बार-बार खून चढ़ाना पड़ता था। आज वे स्वस्थ और सक्रिय जीवनशैली जी रहे हैं। यह उपलब्धि हमारी इस अवधारणा को मजबूत बनाती है कि हर बच्चे को सामान्य जीवन जीने का अधिकार मिलना चाहिए और ऐसे मामलों में सफलता हासिल करने के लिए जल्द से जल्द हस्तक्षेप करना ज़रूरी है।’

यह अध्ययन हैप्लोआइडेंटिकल (हाफ-मैच्ड) ट्रांसप्लांट में भी उल्लेखनीय प्रगति को दर्शाता है, जहां फुल सिबलिंग मैच उपलब्ध न होने के कारण पैरेंटल डोनर का उपयोग किया जाता है। रिड्यूस्ट टॉक्सिसिटी कंडीशनिंग और पोस्ट-ट्रांसप्लांट साइक्लोफोस्फामाइड प्रोटोकॉल्स के उपयोग से जटिलता की दर कम हुई तथा इलाज अधिक सुरक्षित हो गया है।

डॉ राहुल भार्गव, प्रिंसिपल डायरेक्टर, इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड डिसऑर्डर्स एंड बोन मैरो ट्रांसप्लांट्स, फोर्टिस गुरूग्राम ने कहा, ‘‘सिकल सैल रोग के आधे मामले भारत और अफ्रीका में पाए जाते हैं। ऐसे में ट्रांसप्लांट के प्रोटोकॉल्स को लागत-प्रभावी, सुरक्षित एवं स्केलेबल बनाकर हमने दिखा दिया है कि आधुनिक इलाज सिर्फ विकसित देशों तक ही सीमित नहीं है। हमारा लक्ष्य यह सुनिश्चि करता है कि हर बच्चे को उचित इलाज मिले, फिर चाहे वह किसी भी भोगौलिक या आर्थिक स्थिति से ताल्लुक रखता हो।‘

डॉ सोहिनी चक्रवर्ती, सीनियर कन्सलटेन्ट- पीडिएट्रिक हीमेटोलोजी, ओंकोलोजी एंड बोन मैरो ट्रांसप्लांट, फोर्टिस गुरूग्राम ने कहा, ‘‘ये परिणाम जागरुकता, आपसी सहयोग एवं जल्द निदान के महत्व पर ज़ोर देते हैं। फोर्टिस के डॉक्टरों को विश्वास है कि डोनर रजिस्ट्री में सुधार लाकर, इन्फेक्शन कंट्रोल को बेहतर बनाकर और ट्रांसप्लांट के बाद उचित देखभाल प्रदान कर दुनिया भर में सिकल सैल रोग से पीड़ित बच्चों के इलाज को वास्तविकता बनाया जा सकता है।’’

श्री यशपाल रावत, वाईस प्रेज़ीडेन्ट एवं फेसिलिटी डायरेक्टर, फोर्टिस गुरूग्राम ने कहा, ‘‘फोर्टिस में हमारा मानना है कि इनोवेशन, मानवता की सेवा के लिए होने चाहिए। यह आधुनिक उपलब्धि सहानुभूति एवं आधुनिक टेक्नोलॉजी के संयोजन द्वारा जीवनरक्षक इलाज को भारत, अफ्रीका एवं अन्य क्षेत्रों के परिवारों के लिए सुलभ एवं किफ़ायती बनाने की हमारी प्रतिबद्धता को दर्शाती है। एक दशक तक किए गए इन प्रयासों की सफलता न सिर्फ मेडिकल उत्कृष्टता बल्कि आधुनिक देखभाल को सुलभ बनाने की फोर्टिस हेल्थकेयर की प्रतिबद्धता का प्रमाण भी है।

यह भारतीय हेल्थकेयर के लिए उल्लेखनीय उपलब्धि है। इसके साथ एफएमआरआई सिकल सैल रोग से पीड़ित बच्चों को ट्रांसप्लांट के ज़रिए सफल परिणाम उपलब्ध कराने वाले दुनिया के कुछ ही सेंटरों में से एक बन गया है। निरंतर अनुसंधान, आपसी सहयोग और जागरुकता के द्वारा इस तरह के इलाज जल्द ही हर भोगौलिक क्षेत्र एवं हर आय वर्ग के ज़रूरतमंद बच्चों के लिए सुलभ होंगे।

अध्ययन का सारांश
अध्ययन का विषयः सिकल सैल रोग (एससीडी) से पीड़ित बच्चों में हीमेटोपोयटिक स्टैम सैल ट्रांसप्लांटेशन (एचएससीटी) के उत्साहजनक परिणामः विकासशील दुनिया से एक दशक का अनुभव
पृष्ठभूमि और महत्वः सिकल सैल रोग सबसे ज़्यादा आमतौर पर पाई जाने वाली हीमोग्लोबिनोपैथी है, हर साल दुनिया भर में तकरीबन 300,000 नवजात शिशुओं में इस रोग का निदान होता है। जिसकी वजह से जहां एक ओर बच्चों के बीमार रहने की संभावना बढ़ती है, वहीं दूसरी ओर जीवन प्रत्याशा भी कम हो जाती है।

o वर्तमान में एचएससीटी, एससीडी के इलाज का एकमात्र तरीका है। लेकिन इसमें कई तरह की चुनौतियां होती हैं जैसे डोनर की उपलब्धता, सामाजिक-आर्थिक कारक, ट्रांसप्लान्ट का सफल न होना तथा ग्राफ्ट-वर्सेज़-होस्ट डिज़ीज़ जैसी मुश्किलें।
o एचएससीटी करवाने वाले एससीडी के मरीज़ों के लिए कोई स्टैंडर्ड कंडीशनिंग रेजीमेन नहीं है और गैर-पश्चिमी देशों से आने वाने वाले परिणामों का डेटा भी सीमित है।
अध्ययन का तरीका और मरीज़ों की जनसांख्यिकी
o इस सामुहिक अध्ययन में एससीडी से पीड़ित 100 पीडिएट्रिक मरीज़ों को शामिल किया गया, जिनमें जनवरी 2015 से दिसम्बर 2024 के बीच एचएससीटी किया गया था।
o इनमें से 92 मरीज़ों का मूल्यांकन किया गया, 55 मरीज़ों में एचएलए-आइडेंटिकल सिबलिंग ट्रांसप्लान्ट किया गया था, जबकि 37 मरीज़ों में हैप्लोआइडेंटिकल ट्रांसप्लान्ट किया गया था।
o फॉलो-अप का औसत समय 31.6 माह रहा, और प्रतिभागियों की औसत उम्र 7.5 वर्ष थी।
ट्रांसप्लान्ट के परिणाम
o समूह में जीवित रहने की कुल दर 86.9 फीसदी पाई गई। मैच्ड सिबलिंग डोनर (एमएसडी) ट्रांसप्लान्ट में यह दर अधिक- 96.4 फीसदी थी, जबकि हैप्लोआइडेंटिकल ट्रांसप्लान्ट में यह दर अपेक्षाकृत कम- 78.3 फीसदी रही।
o 77 फीसदी मामलों में इवेंट-फ्री सरवाइवल देखा गया, यानि मरीज़ बिना किसी परेशानी से ठीक हो गए। 91.2 फीसदी मरीज़ों में स्टेबल एनग्राफ्टमेंट हुआ।
o अध्ययन के अनुसार समय के साथ हैप्लोआइडेंटिकल ट्रांसप्लान्ट में के परिणामों में सुधार हुआ, खासतौर पर कम टॉक्सिसिटी वाले कंडीशनिंग रेजीमेन को अपनाने के बाद अधिक सुधार दर्ज किया गया।
ग्राफ्ट-वर्सेज़-होस्ट डिज़ीज तथा जटिलताएं
o कुल 26 फीसदी मामलों में एक्यूट जीवीएचडी दर्ज किया गया, 8.4 फीसदी मामलों में ट्रांसप्लांट के दो साल बाद क्रोनिक जीवीएचडी दर्ज किया गया।
o जटिलताओं की बात करें तो 18 मरीज़ों में वायरल रीएक्टिवेशन देखा गया, सिस्टेमेटिक सायटोमेगालोवायरस (सीएमवी) रीएक्टिवेशन सबसे आम रहा।
o अन्य समस्याओं में म्युकोसाइटिस और एंडोथेलियल जटिलताएं देखी गईं, कुछ मरीज़ों को टोटल पैरेंट्रल न्युट्रिशन की ज़रूरत पड़ी।

चर्चा एवं प्रभाव
इस अध्ययन ने एससीडी से पीड़ित बच्चों में एचएससीटी की प्रभाविता पर रोशनी डाली, खासतौर पर जिन बच्चों में एमएसडी ट्रांसप्लांट किया गया था। साथ ही कम संसाधनों वाली सैटिंग में एचएससीटी को सुलभ बनाने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। इस अध्ययन ने सुझाया है कि मरीज़ को जितनी जल्दी ट्रांसप्लांट दिया जाए और ट्रांसप्लान्ट के बाद जितनी अच्छी तरह से देखभाल की जाए, उतना ही मरीज़ के जीवित रहने की संभावना बढ़ जाती है।

ये नतीजे खासतौर पर निम्न एवं मध्यम आय वाले देशों में एससीडी के इलाज के लिए एचएससीटी के परिणामों के बारे में महत्वपूर्ण आंकड़े प्रस्तुत करते हैं।

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