उत्तर भारत में पहली बार जयपुर के फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हॉस्पिटल में केवल 37 दिन के शिशु का किडनी में मूत्र अवरोध के लिए लैप्रोस्कोपिक ऑपरेशन किया गया

Editor- Manish Mathur

जयपुर, 20 मई, 2022: चिकित्सा जगत की एक दुर्लभ और अत्यधिक चुनौतीपूर्ण सर्जरी के तहत फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हॉस्पिटल, जयपुर के एडिशनल डायरेक्टर, यूरोलॉजी एवं किडनी ट्रांसप्लांट विभाग, डॉ. संदीप गुप्ता ने डॉक्टर्स की एक टीम के साथ उत्तर भारत में पहली बार एक 37 दिन के शिशु का लैप्रोस्कोपिक पायलोप्लास्टी की। इस शिशु को पीयूजे ऑब्सट्रक्शन नामक बीमारी थी (इस बीमारी में किडनी से ब्लैडर तक मूत्र ले जाने वाला ट्यूब नहीं बन पाता है)। इस सर्जरी का नाम पायलोप्लास्टी है, जिसमें ट्यूब के एक छोटे से हिस्से को हटाया जाता है और ट्यूब का सामान्य हिस्सा फिर से जोड़ दिया जाता है, ताकि इस ट्यूब से मूत्र सुचारू तरीके से प्रवाहित हो सके।
गर्भ के दौरान तीसरी तिमाही में डॉक्टर्स को अल्ट्रासाउंड द्वारा एक किडनी में विकृतियां दिखाई दीं और यदि समय पर इसका इलाज नहीं किया जाता, तो किडनी को लाइलाज क्षति हो सकती थी। इस समस्या से पीड़ित अन्य बच्चों में पेट में बार-बार दर्द, खाने में मुश्किल, मूत्रनली में संक्रमण, और स्थिति गंभीर होने पर सांस लेने में कठिनाई भी हो सकती है। यह सर्जरी करने के लिए, डॉक्टर्स को उपकरणों को कालिब्रेट कर ऑपरेशन थिएटर में विशेष व्यवस्थाएं करनी पड़ीं। उपकरणों को कालिब्रेट करना आवश्यक था, क्योंकि ऑपरेशन थिएटर के उपकरण बड़े बच्चों और व्यस्कों का ऑपरेशन करने के लिए डिज़ाईन किए गए होते हैं। इसलिए, सीओ2 (कार्बन डाई ऑक्साईड) इनसफ्लेटर, एनेस्थेटिक वैंटिलेटर, लैप्रोस्कोपिक उपकरण, एवं ऑपरेशन थिएटर के तापमान को शिशु की उम्र के मुताबिक समायोजित किया गया है।
इस दुर्लभ सर्जरी के बारे में, डॉ. गुप्ता ने कहा, ‘‘जब शिशु का ऑपरेशन किया जा रहा हो, तो ऐसे जटिल मामलों में सर्जिकल उपकरणों को बहुत ही शुद्धता व सटीकता से चलाना पड़ता है और शिशुओं को एनेस्थेसिया का दिया जाना भी एक बहुत मुश्किल काम है। पारंपरिक रूप से ऐसी सर्जरी शिशु के पेट में एक बड़ा चीरा लगाकर की जाती है, जिसमें काफी दर्द होता है और पेट में काफी बड़ा दाग पड़ जाता है। लैप्रोस्कोपिक सर्जरी किया जाना कोई आसान काम नहीं था और इस काम में बहुत सारी मुश्किलें आईं, लेकिन उसके बाद भी इससे मिनिमल इन्वेसिव सर्जरी के सभी फायदे मिले। यह सर्जरी शिशु के पेट में तीन छोटे-छोटे चीरे लगाकर की गई, जिनमें से प्रत्येक का आकार 5 मिमी. था, जबकि पारंपरिक सर्जरी में 70 से 80 मिमी. का बड़ा चीरा लगाया जाता है।’’
डॉ. गुप्ता ने आगे बताया, ‘‘हमने स्टेंट-लैस पायलोप्लास्टी करने का निर्णय लिया। पोस्ट-ऑपरेटिव हीलिंग के लिए, किडनी में एक डबल-जे स्टेंट डाला जाता है, जो ज्यादातर मामलों में स्वास्थ्यलाभ के एक माह के बाद हटा दिया जाता है। इतने छोटे शिशु के लिए इसके लिए एक बार फिर अस्पताल आना पड़ता और एनेस्थेसिया देना पड़ता। हॉस्पिटल में विशेषज्ञ एनेस्थेटिक्स की मदद से सर्जरी दो घंटे में सफलतापूर्वक पूरी हो गई और शिशु को सर्जरी के तीन दिनों के बाद अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। इस तरह की जन्मजात समस्याएं आजकल शिशुओं में बहुत आम हो गई हैं। मेडिकल विज्ञान की तरक्की के साथ हम गर्भ के दौरान नियमित तौर पर अल्ट्रासाउंड के माध्यम से इस तरह की जानलेवा समस्याओं का पता लगाने में समर्थ बन गए हैं। सर्जरी के दो महीने बाद पोस्ट-ऑपरेटिव परीक्षणों में किडनी के कार्य में काफी सुधार प्रदर्शित हुआ है और सूजन कम हो गई है।

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